Tuesday, August 30, 2016

बच्चे अखबार क्यों पढ़ें ?

कल रात भारत और वेस्टइंडीज की टीमों के मध्य दूसरे टी-20 मुकाबले का प्रसारण आ रहा था। बेटा काव्य मेरे साथ बैठ कर देख रहा था। वेस्टइंडीज की पारी समाप्त हो हो चुकी थी। भारत ने खेलना शुरू किया था। बारिश के कारण मैच बाधित हो गया। मैंने कहा कि अब सोना चाहिए। लेकिन वह बोला कि मुझे पता करके ही सोना है कि कौन जीता और कौन हारा। चूँकि सुबह उसे स्कूल जाना है और मुझे जयपुर निकलना है, इसलिए मैंने टीवी के स्वीच की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा कि अगर मैच का निर्णय ही जानना है तो सुबह अख़बार से पता कर लेंगे। तर्क काम कर गया। सुबह  जब मैं 5 बजे उठा तो तो देखा वह भी जगा हुआ  था। मेरे साथ ही उठ गया। जो कि अप्रत्याशित था। उसने कहा कि अख़बार से पता करें कि कल के मैच में कौन जीता। मैंने उसे अख़बार खोलकर खबर पढ़ने के लिए कहा। उसने अनमने ढंग से खबर पढ़ने की कोशिश की और हैड लाइन पढ़कर अख़बार मेरी ओर बढ़ा दिया, “आप पढ़कर बताओमुझे हैरत हुई उसके अख़बार से इस तरह अलगाव को देखकर। मैं इसके कारण तलाशने लगा।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है, जब मैंने उसका पहला परिचय अख़बार से करवाया था तब आईपीएल के क्रिकेट मुकाबले चल रहे थे। आज की तरह एक सुबह जब ऑफिस के लिए तैयार हुआ और निकलने से पहले ट्रेन का स्टेटस चेक किया, ट्रेन एक घंटा देरी से थी। इस समय का सदुपयोग करते हुए मैंने अख़बार उठा लिया और सुर्खियाँ देखने लगा। एक हैडलाइन आईपीएल के फाइनल मुकाबले की थी। खबर पर ध्यान जाने की बजाए ध्यान बेटे पर गया, जो अभी भी सो रहा था। मैंने उसे आवाज लगाई, "क्या हुआ फाइनल मुक़ाबले का?" बेटा 8 साल का है। उसने आईपीएल 9 के सारे मैच देखें है। बहुत से देशी-विदेशी, नए खिलाडियों के नाम मैंने उसी से सुने हैं। किस खिलाडी के कितने रन या विकेट हो गए, कौन किससे कितने रन पीछे चल रहा है, ऐसी क्रिकेट की जानकारियों का बहुत ही नया खजाना है उसके पास, जो महज दो महीने पुराना है। मैंने अख़बार की खबर न पढ़कर बेटे की जानकारी का आकलन करना चाहा। आईपीएल का नाम सुनते ही बेटा ऐसे उठा जैसे जाग ही रहा था, "आप बताओ, क्या हुआ... मैं तो सो गया था।"

मैंने अचरज से पुछा, "कमाल है ! आप बिना फाइनल मैच देखे ही सो गए।" वह बोला, " क्या करूँ मम्मा ने जबरदस्ती टीवी बंद कर दिया था।" मैं चुप रहा कि घर के निजाम पे कोई टिप्पणी करने का सही वक़्त नहीं। मेरी चुप्पी को बेटे ने तोड़ते हुए कहा, "बताओ न क्या हुआ मैच में?" मैंने कहा, "आप तो जानते हो कि मैं आईपीएल के मैच नहीं देख रहा हूँ... मैंने उसे कहा कि जब आज उस मैच का पुनः प्रसारण या हाइलाइट आएँगे तब देख लेना। सब जानते हैं कि हर बच्चे के लिएअभी और यहींका बहुत महत्व होता है - आज और अभी जैसा कि एक अभिनेता के लिए। अभिनेता तो बहुत अभ्यासों से अभी पर आता है जबकि बच्चा रहता ही वहीं है। उसने कहा कि मुझे तो अभी जानना है। मैंने उसकी तरफ अखबार बढ़ा दिया, "कल के मैच की सारी डिटेल्स इसमें छपी हैं, पढ़ लो।" उसे अचम्भा हुआ, "अच्छा! इसमें छप भी गया होगा?" शायद उसको अपने वाक्य के उपपाठ के रूप में अख़बार का जीवन में महत्व नज़र आया हो। शायद उसे घर में रोज सुबह सबसे जल्दी आने वाली वाहियात चीज की सार्थकता व ज़रूरत महसूस हुई हो। उसने उत्सुकता से अखबार के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया। उसके पन्ने पलटने की बेचैनी यह जाहिर कर रही थी कि ये अख़बार नाहक 15-20 पेज की होती है, एक या दो पन्नों में क्यों नहीं होती। खैर, उसने अपने मतलब के पृष्ठ पर पहुँचने में आधा मिनट से ज्यादा ज़ाया नहीं किया। नीचे बिखरे बाकी पन्नों से मैं अब अंतर्राष्ट्रीय वाला पृष्ठ लेकर पढ़ने लगा। बेटा खेल पृष्ठ का सस्वर वाचन करने लगा। उसके वाचन को ज्यादा देर मैं नज़रअंदाज़ नहीं कर पाया। थोड़ी ही देर में मुझे समझ आ गया कि अख़बार उसके लिए एक मुश्किल चीज़ है। मैंने कई सारे मुश्किल और नए शब्दों के उच्चारणों को दुरुस्त करवाया। अब शुरुआत हो चुकी थी। बेटा भी इस खुदाई में शामिल हो गया और भारी शब्दों की चट्टानों को उखाड़ कर मेरी और लुढ़काने लगा। मैं उनको पूरी मुश्तैदी से थामता, छाँट कर उनमे छुपी अर्थों की मूरतों को उभरता और उसे थमाता जाता।
हमने शब्दों की भी कई श्रेणियां बना रखी हैं। कुछ ऐसे हैं जिन्हें हम रोज़ ओढ़ते बिछाते हैं और कुछ ऐसे हैं जिनको कलई करवाकर कांच की दराजों में सजा रखा है, दूसरों के लिए। जब कोई मेहमान आता है तो जैसे हम तहा कर रखे हुए मेजपोश और गिलाफ बदलते हैं ऐसे ही हम रोज़मर्रा की शब्दावली को छुट्टी देकर तहाए हुए शब्द अख़बारों व किताबों में परोसते हैं। ये दोहरापन हम सामाजिक रूप से ग्रहण करते हैं। और यह हमारे पूरे वज़ूद में पसर जाता है जो अवसर पाते ही व्यवहार में भी झलकता है।
मेरे मन में फिर सवाल आया जो ये अखबार दावा करते हैं कि वे सबसे तेज़ गति से बढ़ रहे हैं, तो ये किस और बढ़ रहे हैं? ये कहाँ तक अपनी पहुँच बढ़ाना चाहते है? बच्चों की ओर तो ये मुखतिब ही नहीं! अगर ये अख़बार बच्चों तक पहुंचना चाहते हैं तो सिर्फ चाहने से नहीं चलेगा।
इसक सवाल के जवाब में लगभग सभी अख़बारों के बच्चों पर आधारित परिशिष्ट, साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक प्रकाशन हैं जो पाठकों को अतिरिक्त पैसा चुकाने के बाद प्राप्त होते हैं। अब सवाल है कि क्या इन परिशिष्टों से बच्चों को ख़बरें मिल पाती हैं, वही खबर जिसको सुनते या टीवी पर देखते वे कल रात सो गए थे। निसंदेह बच्चों को नयी जानकरियाँ चाहिए और ताज़ा ख़बरें भी। शर्त यह है कि खबरनवीसों को अर्थशास्त्र के साथ बच्चों का सौंदर्यशास्त्र भी समझना होगा। बच्चों की भाषा और व्याकरण भी समझना होगा। नहीं तो एक घर में दो तरीके के अख़बार की कल्पना अभी मैं नहीं कर पा रहा।

 इन दोनों घटनाओं, अर्थात बेटे के अखबार को पहली बार जरूरत महसूस करते हुए छूने और वितृष्णा से उसे परे कर देने के मध्य मुझे लगता है कुछ कारण रहे होंगे इस अलगाव के। इसके साथ ही मुझे उन बच्चों के चेहरे भी नज़र आने लगे जो रोज़ सुबह अनिवार्य रूप से अखबार पढ़ने की नसीहतें और फ़ज़ीहतें सहते हैं, स्कूलों की प्रार्थना सभाओं में अख़बार में चेहरा धँसाए ख़बरों से मुठभेड़ करते हैं। मुझे उन शिक्षविदों के चेहरे भी दिखाई देते हैं जो अख़बार वाचन को प्रार्थना सत्र का अभिन्न व अनिवार्य हिस्सा बनाने पर ज़ोर देते हैं।
दलील यह भी है कि अगर बच्चों को रूचि की ख़बरें पढ़ने के लिए कहा जाए तो वे उत्साह के साथ पढ़ते हैं। ये तो वही बात हो गई कि भात में खूब सारा घी डला हो और उतनी ही मात्रा में कंकड़ भी हों तो स्वाद के बावजूद भी किसे रुचेगा? पढ़ने और सीखने में सन्दर्भ से जोड़ना तो महत्वपूर्ण है लेकिन भाषा और शब्दावली को देखना होगा संदर्भ से असंपृक्त बना सकती है।
मुझे किसी से कुछ नहीं कहना है, आलावा उन अखबारों के जो तथाकथित रूप से रोज़ सबसे तेज गति से बढ़ रही हैं! क्या उनके पास कोई योजना है बच्चों को लेकर? ऐसी योजना जो उनके अख़बार को बच्चों  के बर्दाश्त के लायक बना सके। क्या  एक अलग अख़बार पर सोचा जा सकता है? क्या मौजूदा अख़बार में एक कविता कहानी का कॉलम लगा देने भर से काम चल जाएगा? इससे तो बच्चों को हम बचकाना चीजों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। सवाल तो ख़बरों का है, दुनिया से जुड़ने का है। कहानियाँ अतीत के माध्यम से दुनिया में लेकर लाती हैं। बच्चे वर्तमान से सीधा साक्षात्कार कैसे करें, यह विचारणीय है। इन अख़बारों में कोई एक ऐसा वातायन खोलना ही होगा जिसके माध्यम से बच्चे खुद की व बड़ो  की दुनिया को समझ सकें। जब तक ऐसा नहीं हो सकता तब तक अख़बार भी उसी तरह बच्चों के लिए नाकाबिलेबर्दाश्त रहेंगे जिस तरह हमने उनके लिए अपने घर, रिवाज, इमारतें, बसें, ट्रेनें, पाठ्यपुस्तकें बना रखी हैं।

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दलीप वैरागी 
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