Saturday, October 31, 2015

अभिव्यक्ति अपना व्याकरण खुद रच लेती है।

राजस्थान के पाली ज़िले के फालना में किशोरियों के आवासीय शिक्षण शिविर में अकादमिक सम्बलन हेतु आया था। चार महीने के इस शिविर में गरासिया जनजाति की पचास किशोरियाँ आवासीय रूप शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। अभी इस शिविर को शुरू हुए लगभग सप्ताह का समय हुआ था। जब मैंने शिक्षिकाओं से पूछा कि किस तरह के सपोर्ट की जरुरत है। सबने एक ही बात कही कि इन लड़कियों के साथ अभिव्यक्ति पर काम करने की जरुरत है।
मैंने लड़कियों से बातचीत शुरू की। लड़कियां मुखर नहीं थीं। वे बातचीत में नहीं जुड़ रही थीं। मैंने कुछ ऐसी गतिविधियाँ शुरू की जिससे लड़कियाँ बोलचाल में शामिल हों, सहज हों। पर इस सहजता के माने क्या हैं कई बार हमें खुद नहीं पता होते और अभिव्यक्ति के भी... लड़कियां हिंदी समझती हैं लेकिन ज्यादातर बातचीत मारवाड़ी में ही करती हैं। हिंदी वे बोलती नहीं तो फिर क्या किया जाए? सोचा जहाँ से वे मुखर हैं वहीँ से ही उन्हें सुना जाए। अभिव्यक्ति का भी एक जबरदस्त राजनैतिक रिश्ता होता है शिक्षक और विद्यार्थी के दरम्यान - जब उन्हें उनकी मातृ भाषा से अलग शिक्षक की भाषा या अन्य भाषा में सिखाया जाता है तो अनायास ही शिक्षक सत्ता के और भी ऊँचे शिखर पर जा बैठता है तथा विद्यार्थी हीनताबोध की गहरी खाई में। फलस्वरूप शिक्षक इस मुगालते को जुमले की तरह उछलता है कि विद्यार्थी अभिव्यक्ति में कमज़ोर है। यह मुगालता चेतन व अवचेतन दोनों में पलता है।
नाट्यकला ऐसी स्थिति में बहुत मदद करती है। नाट्याभिव्यक्ति का बहुत बड़ा हिस्सा शारीरिक भाषा का होता है। शारीरिक अभिव्यक्ति की भाषा कमोबेश सार्वभौमिक-सी होती है। उन लड़कियों से संवाद बनने की शुरुआत हो और वे बराबरी की हैसियत में आकर, होंसले से प्रक्रिया में शामिल हों, इन लड़कियों के साथ “शूज शफल” गतिविधि करवाई। शूज शफल एक बहुप्रचलित थियेटर एक्सर्साइज़ है। इसमें कोई वस्तु मंच पर रखी जाती है जिसे अभिनेता को अपनी कला से उसे अन्य वस्तु मान कर अभिनय करना होता है।
मैंने ऑब्जेक्ट के रूप में ढपली को रखा और लड़कियों से आकर अभिनय करने के लिए कहा। सन्नाटा। एक बार को मैंने मान ही लिया था कि यह गतिविधि भी अब तक आजमाई गई गतिविधियों में एक बन कर रह गई। फिर मैंने सोचा शायद यह मेरी हिंदी की सम्प्रेषणीयता का ही नतीजा तो नहीं। तो क्या मारवाड़ी में बोला जाए? या अनुवादक की भूमिका तय की जाए। अचानक मैंने शारीरिक अभिव्यक्ति के विकल्प को बेहतर माना और गतिविधि को एक बार डेमोन्सट्रेट कर दिया। इससे जैसे ठहरे पानी में लहरें उठीं और लड़कियां बारी-बारी से उठ कर आने लगीं। फेरी वाले की टोकरी, आरती का थाल, भिखारी का कटोरा, आटे की परात, चकला, बैठने की चौकी, आइना,आटा छलनी और जाने कौन-कौनसे रूपों में ढपली ढलने लगी।
एक तरफ ढपली है, दूसरे छोर पर लड़कियाँ और उनका शारीर इन दोनों को जोड़ते हुए एक विचार प्रवाहित हो रहा है दरम्यान। और यह विचार कल्पना को जन्म दे रहा है। और वह कल्पना अवचेतन की अँधेरी गलियों में से एक चरित्र को खोज लाई और उस चरित्र का जामा ओढ़कर लड़की खड़ी होती है और एक झीना पर्दा डाल देती है दर्शक की चेतना पर। उसी विचार की सरिता में  दर्शक भी डुबकी लगता है। अभिनेता की कल्पना दर्शक की छवि से एकाकार हो जाती है। जिससे चीजें जड़ होते हुए भी अलग-अलग रूपाकारों में नमूदार होने लगती हैं। शायद इसी कवायद को हम अभिनय कह देते हैं। छोटे बच्चे इस फन के उतने ही बड़े उस्ताद होते हैं। वे अपने नाटकीय खेलों में घंटो तक लकड़ी के चौकोर टुकड़े से हाथी के संवाद बुलवा  देते हैं और कोट के पुराने बटन की कश्ती बना सागर की लहरों पर छोड़ दें। मज़ाल है कोई चीज़ उनकी हुक्मउदूली कर दे। यहाँ दर्शक और अभिनेता वही होता है।
खैर, शूज शफल की गतिविधि चल निकली। अब वे लड़कियां भी सामने आने लगीं जो अब तक अपेक्षकृत कम सक्रीय थीं। कई तो दो तीन बार भी आ गईं। गतिविधि लंबी खिंच गई। मैं इसे समाप्त करना चाहता था या कोई नया मोड़ देना चाहता था। ऊब कही से भी प्रवेश कर जाती है।
इससे पहले मैं कोई तरीका सोचूं लड़कियों ने स्वयं ही एक बदलाव कर दिया। अचानक दो लड़कियाँ एक साथ उठकर आईं और रखे हुए ऑब्जेक्ट के साथ एक्ट करने लगीं। इसके साथ एक नया आयाम जुड़ गया जो विचार की नितांत आंतरिक निःशब्द यात्रा थी अब वह दो में साझा प्रक्रिया बन गया। फलस्वरूप इस साझा तैयारी ने शब्दों का ताना बाना भी बुनना शुरू कर दिया। विचार शब्दों के समुच्चय में उतरने लगा। इधर मैंने भी एक नया आयाम जोड़ दिया और ढपली के आलावा एक झाड़ू को भी रख दिया। अब झाड़ू भी उनकी साझा अभिनय यात्रा में शामिल हो गई। मैंने एक और वस्तु को शामिल कर दिया। पास रखी ढोलक को मंच पर सरका दिया। वस्तुएं बढ़ी तो चुनौती भी। पहले विचार में दो ही सहयात्री थे अब अन्य सिर भी आपस में जुड़ने लगे। धीरे-धीरे चीजें इस्तेमाल होने लगीं, अपने से जुदा रूपों में। धीरे-धीरे एक्ट में भाग लेने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ने लगी। अपने आप जरुरत के अनुसार अन्य वस्तुएं भी जुड़ने लगीं और लोग भी। अब चौकोर (प्रोसिनीयम) रंगमंच गोल दायरे (एरिना) में बदलने लगा। गोल रूपाकार शायद लोगों के जुड़ने के लिए ही होता है। परिधि में कोई भी जुड़ जाए तो केंद्र नहीं बदलता। और चौखटे में केंद्र की कोई स्थिति कहाँ? किसी एक बाजु का घट बढ़त दूसरी तरफ का गणित गड़बड़ कर जाता है। शायद इसी लिए आदिवासी नृत्यों का फॉर्म वृत्ताकार परिधि में ही होता है। जबकि शास्त्रीय नृत्यों की कसावट एक चौखटे में कसी होती है। यहाँ आपके लिए दर्शक दीर्घा से मंच तक का फासला मीलों लंबा हो सकता है। लोक कलाओं में महज वृत्त की लकीर भर लाँघनी है।
गतिविधि में शामिल लड़कियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि दर्शक और अभिनेता के बीच की रेखा धूमिल हो गई। अब गोल दायरे के बीच में विचार और बड़ा आकार ले चुका था एक क्षीण कथासूत्र के रूप में। प्रॉप्स भी यूज हो रहे थे अलहदा रूप में और अपने वास्तविक रूप में भी। खेल के नियम पीछे छूट गए। प्रारूप की जकड़न छूट गई। खेल अब खेला बन गया। सहज अभिव्यक्ति अपनी प्रकृति में ही विद्रोही होती है शायद। वह बाँध में नहीं बाँधी जा सकती।  वह अपने व्याकरण खुद रच लेती है। हॉल में अब अभिनय था, ऊर्जा थी और थी सरापा अभिव्यक्ति और सब उसमें सराबोर। मैं(निर्देशक) वहां होते हुए भी ओझल हो चुका था शायद अप्रासंगिक भी। कुछ था तो पूरे कमरे में तैर रहा था एक नाटक। अपने आप मिटटी में ऊगा हुआ सा। पूरे कमरे में अभिनय और ऊर्जा का सागर हिलोरें ले रहा था।उसने निर्देशक को नेपथ्य पर ला पटका।
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दलीप वैरागी 
09928986983 

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