Saturday, March 7, 2015

नाटक, संभावनाओं का मंच (भाग - 1) : खामोश नाटक जारी है

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इस शृंखला में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में नाट्य कार्यशालाओं के अनुभवों व उनसे बनी समझ को सँजोने की कोशिश की गई है। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (केजीबीवी) सरकार द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय हैं। केजीबीवी में समाज के गरीब व वंचित तबके की लड़कियाँ वहीं रह कर कक्षा छ: से आठ तक शिक्षा हासिल करती हैं। यहाँ उन्हें सभी आवासीय सुविधाएं व शिक्षा नि:शुल्क उपलब्ध हैं। यहाँ उन लड़कियों को प्रवेश प्राथमिकता से दिया जाता है, जिन्हें कभी स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला है। इसके अलावा वे लड़कियाँ भी आती हैं, जो कभी स्कूल गई थीं, पर कुछ दर्ज़े पार करने के बाद ही उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई। संधान पिछले पाँच वर्षों से राजस्थान के केजीबीवी के साथ गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए कार्य कर रहा है। केजीबीवी में जिस तरह की लड़कियाँ नामांकित होती हैं, उनके साथ ऐसी प्रक्रियाएँ अपनाने की ज़रूरत होती है जिससे वे तेज़ गति से सीख सकें, शीघ्रता से पढ़ने-लिखने के बुनियादी तरीके हासिल करें जो उन्हें अपनी कक्षा की अपेक्षित दक्षताओं तक पहुँचने में मदद करें। इसके साथ उनमे न्होंसला कायम हो कि वे सीख सकती हैं। इसी सोश के तहत अजमेर व बीकानेर के केजीबीवी में थियेटर कार्यशालाएँ आयोजित की गईं। यहा उनके अनुभवों का विवरण है। इसका उद्देश्य यही है, कि इन अनुभवों से जो सीख उभर कर आती है, उसके आधार पर शिक्षिकाएँ अपने प्रयोग कर सकें। 

 खामोश, नाटक जारी है।

“अभी आपने हमारा नाटक कहानी किससे काही जाए देखा।” केजीबीवी तबीजी में नाट्य कार्यश्याला के अंतिम दिन का यह दृश्य है। ये शब्द नाटक खत्म होने के बाद नाट्य दल की बालिका अर्चना खरोल के थे। अर्चना यहाँ नाटक खत्म होने  का संदेश देने के लिए मंच पर उपस्थित हुई थी। उसके मजबूती से खड़े होने के अंदाज़, आत्मविश्वास व आँखों की चमक से ऐसा लग नहीं रहा था कि अभी यहाँ कुछ खत्म करने का इरादा है, बल्कि यह कि कोई सिलसिला शुरू होने जा रहा है। अर्चना ने इसी बात को साबित करते हुए दर्शकों, जिनमें बाकी लड़कियाँ, शिक्षिकाएँ व इस प्रदर्शन के लिए विशेष रूप से आमंत्रित बीईओ साहब थे, से कहा –
“इन तीन दिनों में हमारे केजीबीवी में जो नाटक सिखाया गया, वह हमने आपके सामने प्रस्तुत किया। आपको हमारा नाटक कैसा लगा? आप कोई सवाल पूछना चाहते हैं या कोई सुझाव देना चाहते हैं?
सवाल के जवाब में थोड़ी देर सन्नता पसरा रहा। शायद नाटक के बाद इस तरह का सवाल अनपेक्षित था। अचानक एक हाथ हवा में उभरा, जुगनू की तरह, फिर एक और... एक और... एक-एक करके कई हाथ खड़े हो गए। इन जुगनुओं से कोई एक कौना रौशन नहीं था, बल्कि पूरा मंच जगमगा उठा। इन जुगनुओं से हाथ मिला एक चिराग भी प्रज्ज्वलित हुआ। बीईओ साहब कि भी सवाल-जवाब में दिलचस्पी जागी। लड़कियों के सवाल जहां एक ओर नाटक के द्वारा पैदा की गई सहज जिज्ञासा के प्रतिफल थे, वहीं वे उस कौतूहल का नतीजा भी थे कि  पता तो करें कि तीन दिन से क्या हो रहा है ?’ हालांकि उन्हें बताया तो गया था कि नाट्य कार्यशाला चल रही है, लेकिन दरअसल क्या-क्या सिखाया गया, उन्हें नहीं पता था।
लड़कियों ने सवाल पूछने शुरू किए –
“मुखौटे क्यों लगाए जाते हैं?
“नाटक में आधी लड़कियों ने ही मुखौटे क्यों लगा रखे थे?
“पर्दा क्यों लगाया गया था?
“नाटक के अंदर गाना क्यों जोड़ा गया?
“कोरस क्यों बनाया गया ?
“चार लड़कियों ने चार अलग-अलग बातें क्यों कहीं?
“नाटक सभी लड़कियों को क्यों नहीं सिखाया गया? आधे समूह को ही क्यों सिखाया गया?
सवालों को सुन कर थोड़ी देर के लिए हमारे भी होश फ़ाख्ता हुए। फिर हमारे अंदर एक नाट्य-निर्देशक जागा। सवालों का जूआ अपने कंधों पर लादने का मन बना लिया, यह सोच कर कि ये नाट्यशास्त्रीय अवधारणाओं के बुनियादी सवाल हैं, शायद लड़कियाँ जवाब न दे पाएँ। लेकिन, हमने अपने को रोका और फ़ैसला किया कि सवालों के जवाब जिनसे पूछे गए हैं, उन्हें ही देने चाहिए। जिस प्रकार नाटक में हम अभिनेता पर भरोसा करते हैं कि वह अभीष्ट विचार को दर्शकों तक पहुंचाएगा, इस नाटक में भी लड़कियों पर ज्वलंत सामाजिक प्रश्न खड़ा करने का भरोसा किया है। जब उस भरोसे को परखने का वक्त आया है कि क्या लड़कियाँ इन सामाजिक सवालों को खड़ा करने की प्रक्रिया में खुद खड़ी हो पाई हैं या नहीं, तो फिर उस मौके को हाथ से क्यों जानें दें! दूसरी बात श्रेय लेने की भी है। सारा श्रेय उन लड़कियों को ही लेना चाहिए, अच्छा या बुरा। यहाँ मुद्दा हमारी प्रक्रिया के मूल्यांकन का भी है कि नाटक बनाने की प्रक्रिया में क्या लड़कियाँ लाइनें ही रट रही थीं या फिर उन्होने प्रक्रिया का विश्लेषण कर उसे समझा है। बहरहाल, हमें बीच में से हट जाना चाहिए। ऐसा हुआ भी... और बाद में हमें खड़े होने की ज़रूरत पड़ी भी नहीं, सिवाय इसके कि जब उत्साह कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता तो ज़रा सा हस्तक्षेप लोकसभा स्पीकर सरीखा... लड़कियों ने बहुत ही व्यवस्थित तरीके से मंच को संभाला। सवाल दर जवाब और जवाब दर सवाल लड़कियाँ आगे बढ़ती रहीं और बहस को चलती रहीं। जैसे उनका सवाल पूछने का तरीका लोकतान्त्रिक था वैसे ही जवाब भी लोकतान्त्रिक तरीके से आ रहे थे। जैसे ही सवाल पूछा जाता तो मंच पर बैठी कोई भी लड़की कहती, “मैं इस सवाल का जवाब देना चाहती हूँ।” वह हाथ खड़ा करती और सवाल का जवाब देती। लड़कियों के वही चंद सवाल यहाँ दिए गए हैं जिन्हें दस्तावेज़ तैयार कर रही लड़की नूरी खातून ने लिख लिया था। आप पूछेंगे सवालों के जवाब कहाँ हैं? जवाब लड़कियों को मिल चुके हैं, लड़कियों ई मार्फ़त। हमारे लिए सवाल महत्वपूर्ण हैं। सवाल शाश्वत होटेन हैं। उनके जवाब सार्वभौमिक नहीं होते। उन्हें अपने संदर्भों से ही समझना पड़ता है। लड़कियों ने उन्हें अपने संदर्भ में देखा। आप भी सवाल से सवाल की तरह ही पेश आएँ।
जब सवाल-जवाब का सिलसिला थमा तो नाटक करने वाली लड़कियाँ हमारी खामोशी बर्दाश्त नहीं कर पाईं। उन्होने पूछ ही लिया –
“आपको हमारा नाटक कैसा लगा?
“आपको नाटक कराते समय कोई कठिनाई तो नहीं आई?
“आप दोबारा कब आएंगे?
जवाब की शक्ल में कुछ भावुकता भरे शब्द ही व्यक्त होने वाले थे, जो अक्सर सार्वभौमिक से होते हैं। आखिरकार मंचन इस सूचना के साथ खत्म हुआ कि शाम को दौसा ज़िले की एक केजीबीवी की लड़कियाँ एक्सपोजर विजिट के लिए अजमेर आई हुई है, जो शाम को यहीं रुकेंगी। फिर क्या था, लड़कियों ने तुरंत निर्णय किया कि क्यों न यह नाटक उन लड़कियों को भी दिखाया जाए। आनन-फ़ानन में वे लड़कियाँ तैयारियों में जुट गईं। इस बार यह जानने के लिए कि लड़कियों का क्या रिफ्लैक्शन है यानि वे उसके बारे में क्या सोचती हैं, शिक्षिकाओं ने उस प्रक्रिया को थोड़ा और व्यवस्थित किया, ताकि आने वाली प्रत्येक लड़की अपनी प्रतिकृया जाहीर कर सके।
इसके लिए चौथाई कागज़ की लगभग सौ पर्चियाँ काटी गईं, जो मंचन के पश्चात लड़कियों को अपनी राय ज़ाहिर करने के लिए दी गईं। तैयारियां पूरी करके लड़कियाँ इंतज़ार करने में लगी। हमें लगा कि नाटक खत्म नहीं हुआ है। वह अभी भी चल रहा है, खामोशी के साथ लड़कियों व शिक्षिकाओं के ज़हन में। हमें लगा हमारा काम पूरा हो गया, थैला उठाया, इजाज़त ली और निकल गए।

बातों से बात निकलती गई

 प्रशिक्षण का दूसरा दिन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। पहले दिन के अप्रत्याशित नतीज़े सामने आने लगे। लड़कियों को मिलकर एक कहानी रचने का काम दिया था, जिसे उन्होंने बखूबी किया। दूसरा, लड़कियों ने पहले दिन का दस्तावेजीकरण भी स्वप्रेरणा से किया था, जिसके वचन से उन्होंने दूसरे दिन की शुरुआत कि। अब उनके प्रतिवेदन के अनुसार ही हम पहले दिन को समझने की कोशिश करते हैं-
“हमारे यहाँ पर संधान से दलीप सर व संजय विद्रोही सर आए। हम सभी लड़कियों को बहुत खुशी हुई। फिर हम सभी लड़कियों में से छत्तीस लड़कियों का चयन किया और हॉल में लेकर गए। हम सभी ने भी परिचय दिया। फिर उन्होंने बताया कि हम तुम्हें नाटक सिखाएँगे, मुकुट (मुखौटे) बनाना सिखाएँगे। हमें बहुत खुशी हुई। फिर उन्होंने पूछा कि हम किस टॉपिक पर नाटक बनाएँगे?
यहाँ उद्देश्य था कि किसी पहले से लिखी गई स्क्रिप्ट पर काम न कर, लड़कियों के खुद के अनुभवों पर आधारित कोई विषय तय किया जाए। ताकि, उन्हें पता चले कि किस प्रकार एक विचार के इर्द-गिर्द कहानी बनाई जाती है, फिर संवाद लिखे जाते हैं तथा उन संवादों के आधार पर पूरे नाटक का ताना-बना कैसे बुना जाता है।
“उन्होंने पहले हमारे सपनों के बारे में पूछा। किसी ने कहा, मैं टीचर बनना चाहती हूँ। किसी ने कहा मेरे पास बड़ा सा मकान हो।एक लड़की ने कहा, पापा मुझे आगे नहीं पदाएंगे, मुझे इस बात का डर है। इस प्रकार हमने डर टॉपिक चुना। खाना खाकर दो बजे हॉल में बैठ गए और गाना गया। सर ने हमें डर टॉपिक पर कहानी बनाने को कहा। हमसे पूछा कि हमे किस-किस से डर लगता है? हमने लड़कियों की सहायता से उसे नोट किया और अब इसी की सहायत से हमें कहानी बनानी है। कहानी किस प्रकार बनाते हैं, छोटा सा गेम खिलाया गया ताकि पता चले लड़कियों की कल्पना शक्ति कितनी तेज़ है। इस प्रकार डर पर ही गाना बनाने के लिए कहा गया।”
यहा विशेष रूप से उल्लेखनीय बात यह है कि लड़कियाँ पूरी प्रक्रिया में सक्रिय रूप से जुड़ रही थीं, शुरू से आखिर तक जिस भी रूप में काम आगे बढ़ रहा था उसे अपनी कॉपी में लिखती जा रही थीं ताकि कोई चरण  छूट न जाए। कौन क्या बनाना चाहती है, किसके क्या सपने हैं, किस-किससे डर लगता है। कहानी-निर्माण की प्रक्रिया में जब कोई लड़की वाक्य जोड़ कर आगे बढ़ती तो दूसरी लड़की झट से उसे लिख लेती। धीरे-धीरे टीम में सहयोग का ताना-बाना अपने आप खिंचने लग गया। इस प्रकार कहानी के संवाद व गीत पंक्ति दर पंक्ति बनते गए। अर्चना खारोल व नूरी खातून कहानी के पूरा होने पर आखिरी तय स्वरूप अपनी कॉपी में दर्ज़ कर लेतीं।
“बाद में हमने मुखौटे बनाने शुरू किए। सर ने बताया कि मुखौटे किस प्रकार बनाए जाते हैं। उखौटे जिस चीज़ से बनाए जाते हैं, उसे जिप्सोमा कहते हैं। सर ने एक लड़की के चेहरे पर मुखौटा बनाकर दिखाया। सबसे पहले जिप्सोमा की पट्टी को थोड़ा-थोड़ा व छोटा काट दिया। फिर एक कटोरी में पानी भर लिया। पहले लड़की के चेहरे पर आँवले का तेल लगाया ताकि मुखौटा चिपके नहीं। फिर जिप्सोमा को जल्दी से भिगोकर चेहरे पर लगा दिया। इस प्रकार आँख, होंठ आदि को ध्यान में रखते हुए मुखौटे बनाए। फिर ये लड़कियों ने एक दूसरे पर बना कर देखे।इस प्रकार सात मुखौटे बना लिए।”
मुखौटे बनाने की शुरुआत में मैं जिप्सोमा की पट्टियाँ काट रहा था और संजय उसे एक लड़की के चेहरे पर लगा कर लड़कियों को दिखा रहे थे। इस दौरान समझ में आ रहा था कि लड़कियाँ किस कदर यह काम अपने हात में लेने को आतुर हैं। अभी मैंने कोई दस पट्टियाँ ही काटी होंगी कि एक लड़की ने कैंची मुझसे ले ली, “लाओ, यह तो मैं कर लूँगी।” संजय ने एक मुखौटा अभी पूरा ही किया था। उससे पहले ही छ:-सात लड़कियाँ अपने चेहरे पर तेल मल कर तैयार थीं और इतनी ही लड़कियाँ उनके चेहरे पर मुखौटे बनाने के लिए तैनात हो गईं। सब अपनी-अपनी कल्पना के हिसाब से मुखौटों को उभारने में जुट गईं। एक लड़की ने कहा, सर, मैं भौंहे बना दूँ। एक लड़की ने माथे पर तिलक भी उकेर दिया। उतार कर मुखौटे सूखने के लिए रख दिए। सूखने के बाद रंग करने की बारी थी। सब अपनी-अपनी कल्पना के रंग भर रही थीं। अचानक एक लड़की ने कहा, “अरे, यह कैसे पता चलेगा कि कौनसा मुखौटा आदमी का है और कौनसा औरत का?” तभी, एक लड़की ने मुखौटे पर काली स्याही से घुमावदार मूंछें लगा दीं और मुखौटे को हवा में लहराते हुए कहा, “अब बन गया आदमी!”
लड़कियों के प्रतिवेदन से यह बात साफ़ है कि वे जहां एक ओर गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल थीं, वहीं दूसरी तरफ तटस्थ रूप से प्रक्रिया को देख कर विश्लेषण कर रही थीं। साथ में, वे यह कयास भी लगा रही थीं कि कौनसी गतिविधि किस उद्देश्य के लिए कारवाई गई थी। 
इन अनुभवों का प्रकाशन संधान द्वारा प्रकाशित किया जा चुका हैजिसे पीडीएफ़ में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं - नाटक : संभावनाओं का मंच   
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दलीप वैरागी 
09928986983 

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