Tuesday, May 31, 2011

Theatre : सच को साधने का यन्त्र

यह २००६ - ०७ की बात है हम राजस्थान टोंक व धौलपुर जिले के स्कूलों में quality education project के तहत स्कूलों में educational support  का काम कर रहे थे | हर महीने हम स्कूलों का विज़िट करते | तीन दिन तक विद्यालय में पूरा समय रह कर अवलोकन करते थे |  टीचर्स बच्चों को पढाते कैसा हैं ? जो विधाएं टीचर्स शिक्षण में अपना रहे हैं वे कैसी हैं  और उनका बच्चों के प्रति व्यवहार कैसा ? कक्षा में बैठ कर देखते और जहाँ भी लगता हम टीचर को सपोर्ट करते | इस सिलसिले में एक स्कूल ऐसा था जहाँ सब चीजें दुरुस्त नज़र आतीं थी | टीचर्स समय पर विद्यालय आते , पूरा समय कक्षाओं में रहते यहाँ तक कि दो तीन शिक्षक तो विद्यालय समय के आलावा रुक कर अतिरिक्त कक्षाएँ भी लेते | एक चीज़ के बारे में मई कोई पक्का नहीं कर पा रहा था कि इस स्कूल में दंड की क्या स्थिति है? हालाँकि कई बार मैंने टीचर्स को गाली व डांट - फटकार जैसे असंवेदनशील व्यव्हार बच्चों से  करते देखा था लेकिन शारीरिक दंड को भौतिक रूप से नहीं देखा जबकि स्कूल में डंडे की उपस्थिति बराबर नज़र आती रही | मुझे लगता कि इस विद्यालय में बच्चों को दंड तो मिलता है लेकिन जिन दिनों मैं आता हूँ उन दिनों में टीचर संयम रख लेते हैं | ऐसा नहीं कि हम बच्चों से बात नहीं करते थे | स्कूल में हमारा अधिकतम समय बच्चों के साथ ही व्यतीत होता था | हम अध्यापक की उपस्थिति में और उसकी गैरमौजूदगी में भी बच्चों से बात करते  |  दंड के विषय में में हमने बच्चों से कई बार पूछा लेकिन बच्चों ने यही कहा कि उनके स्कूल में पिटाई नहीं होती है | एक दिन हमने एक युक्ति सोची | हम अक्सर क्लास में बच्चों के साथ नाटक पर काम करते थे | हमने सब बच्चों से कहा कि आज हम नाटक करेंगे | बच्चे बहुत खुश हुए | हमने बच्चों के चार समूह बना दिए और बच्चों से कहा कि आप अपने-अपने समूह में एक नाटक तैयार कर के लाएं जिसका विषय ‘क्लास रूम में में शिक्षक पढ़ा रहा है’  हो सकता है |
नाटक तैयार करने की प्रक्रिया से बच्चे पहले ही परिचित थे , बच्चे स्वतंत्र रूप से मिलकर थीम पर नाटक तैयार करते अगर जरूरत पड़े तो वे किसी की भी मदद ले सकते थे | जब सब समूहों के नाटक तैयार हो गए तो शाम को प्रार्थना स्थल पर बच्चों ने मंच तैयार कर जो नाटक improvise किये थे करके दिखाए | नाटक देख कर सब दंग रह गए | नाटक के सभी दृश्यों में जो बच्चे टीचर बने थे वे लगातार पढ़ा रहे थे , सवाल पूछ रहे थे और ना बता सकने पर पीट रहे थे | नाटक के दृश्यों के साथ टीचर्स भी पूरा साधारणीकरण कर चुके थे | फुल एन्जॉय कर रहे और बच्चों के पिटाई के action देख कर टिप्पणियाँ भी कर रहे थे “अरे यह तो हैडमास्टर साहब की स्टाइल है |”  “ये तो बिलकुल रामजीलाल लग रहे हैं |” 
ऐसा कैसे हो गया ? पूछने पर टीचर्स और बच्चे दोनों ही इनकार कर रहे थे कि हमारे स्कूल में पिटाई नहीं होती है जबकि नाटक में बच्चों ने जाहिर कर दिया और देखते हुए टीचर्स ने रियलाइज भी किया | दरअसल नाटक में ऐसा है क्या ?  क्या यह झूठ पकड़ने की की मशीन है ?
नहीं | दरअसल यह सच को साधने का यन्त्र है | इसमें फॉयड का मनोविश्लेषण वाद काम करता है | नाटक हमारे अचेतन में सेंध लगता है | हमारा अचेतन वह स्टोर है जहाँ हमारी वह अतृप्त इच्छाएँ या वो भावनाएँ रहती है जो दबा दी  गयी होती हैं | जिनको प्रकट  करने पर सेंसरशिप होती है |  अभिनय की प्रक्रिया दरअसल स्वप्नों की तरह व्यवहार करती है | जिस प्रकार फॉयड सपनों की व्याख्या करते हुए कहते है कि   स्वप्नों के पीछे एक मूल विचार होता है और एक  स्वप्न की विषय वस्तु होती है | स्वप्न के पीछे का उद्दीपक विचार प्रतीकात्मक रूप से स्वप्न की विषय वस्तु के रूप में प्रकट होता है और स्वप्नों की व्याख्या करके मूल विचर या उसके पीछे की अतीत की घटना को पकड़ा जा सकता है | नाटक भी इसी तरह व्यवहार करता है जब आप दूसरे के स्तर पर जाकर अनुभव करते हैं तो सेंसरशिप ढीली पड़ती है और अचेतन में कहीं गहरे बैठा खुद का अनुभूत सच दूसरे के बहाने से फूट पड़ता है  | यहाँ बच्चे और टीचर दंड के बारे में बताना नहीं चाहते हैं क्योंकि बच्चों का जाहिर करने का अपना डर है और टीचर में कही अपराध बोध है | इस कारण दोनों प्रत्यक्ष बताना नहीं चाहते हैं लेकिन नाटक के मार्फत दोनों ही इस सच को स्वीकारते हैं |
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दलीप वैरागी 
09928986983 

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